कवरेज इंडिया न्यूज़ ब्यूरो प्रयागराज।
प्रयागराज की सड़कों पर एक साधारण दिन, मंगला प्रसाद तिवारी, एक मेहनती मीडियाकर्मी, और उनकी पत्नी अमृता तिवारी की नजर एक बेसहारा व्यक्ति पर पड़ी जो फुटपाथ पर बासी खाना खा रहा था। यह दृश्य मंगला के लिए सिर्फ एक क्षण नहीं, बल्कि उनकी जिंदगी बदल देने वाला अनुभव बन गया। उनके मन में सवाल उठा, "क्या कोई इंसान इस तरह जीने को मजबूर होना चाहिए?" तीन साल पहले उनके दिल में एक आग जली, और उन्होंने संकल्प लिया: "कोई भूखा नहीं सोएगा।"
छोटी शुरुआत, बड़ा इरादा
एक मध्यमवर्गीय परिवार में जहाँ हर पैसा सोच-समझकर खर्च होता है, मंगला ने अपनी सैलरी का 10% हिस्सा उन लोगों के लिए समर्पित करने का फैसला किया जो सड़कों पर जीते हैं। यह एक बड़ा त्याग था, लेकिन मंगला और अमृता ने अपने घर की रसोई से शुरुआत की। अपनी व्यस्त नौकरी के कारण उन्होंने हर रविवार को शुद्ध और पौष्टिक भोजन तैयार कर जरूरतमंदों तक पहुँचाना शुरू किया। यहीं से 'रविवार की रसोई' का जन्म हुआ, जो आज एक आंदोलन बन चुका है।
संघर्ष और समर्पण: चुनौतियों का सामना
शुरुआती दिन आसान नहीं थे। मीडियाकर्मी के रूप में मंगला की व्यस्त दिनचर्या और सीमित आय के बावजूद, उन्होंने हार नहीं मानी। उनकी सैलरी का 10% हिस्सा इस मिशन के लिए नियमित रूप से समर्पित किया गया। सामाजिक उदासीनता भी एक चुनौती थी, लेकिन मंगला का जुनून और अमृता का साथ उनकी ताकत बना। उन्होंने मदद फाउंडेशन के साथ मिलकर इस पहल को और मजबूत किया। धीरे-धीरे, स्वयंसेवकों की एक छोटी सी टीम जुड़ी, और यह कारवाँ प्रयागराज से निकलकर कई जिलों और प्रदेशों तक फैल गया।
भोजन से आगे: इंसानियत की सेवा
मंगला की यात्रा सिर्फ भोजन बाँटने तक सीमित नहीं रही। अपनी सैलरी के 10% हिस्से से शुरू हुआ यह अभियान आज हर रविवार को 500 से 600 लोगों को भोजन कराता है। लेकिन उनका मिशन इससे कहीं बड़ा है। उनकी टीम जरूरतमंदों की कहानियाँ सुनती है, उनकी तकलीफों को समझती है और समाधान तलाशती है। दवाएँ, आर्थिक सहायता, और गंभीर बीमारियों का इलाज उनकी प्राथमिकता बन गया।
एक बार, मंगला ने एक बुजुर्ग की मदद की, जो तीन साल से अंधेरे में जी रहे थे। उनकी सैलरी के हिस्से और मदद फाउंडेशन की सहायता से उनकी आँखों का ऑपरेशन करवाया गया, जिसने उन्हें नई रोशनी दी। एक अन्य बुजुर्ग, जो कई वर्षों से फाइलेरिया से पीड़ित थे, उनका इलाज भी मंगला की टीम ने शुरू करवाया। ये छोटे-छोटे कदम उन लोगों के लिए जीवन का नया सवेरा बन गए। मंगला कहते हैं, "हम सिर्फ भोजन नहीं देते, हम अपनी मेहनत की कमाई से उनके दिलों में उम्मीद जगाते हैं कि दुनिया में इंसानियत अभी जिंदा है।"
निशुल्क शिक्षा: एक और पहल
मंगला और उनकी टीम मलिन बस्तियों और झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले परिवारों के बच्चों को निशुल्क शिक्षा भी प्रदान करती है। वे इन बच्चों के लिए कॉपी, पेंसिल और बॉक्स जैसी जरूरी चीजों की व्यवस्था भी मुफ्त में कराते हैं। चूंकि उनके पास संसाधन सीमित हैं और वे अपनी सैलरी का 10% हिस्सा ही इस काम में लगा पाते हैं, इसलिए यह संख्या भी सीमित है। हालांकि कभी-कभी कुछ लोग 100, 200 या 500 रुपये की आर्थिक मदद कर देते हैं, लेकिन यह मदद नियमित नहीं मिल पाती। इस कारण वे चाहकर भी ऐसे बच्चों को पढ़ाई के लिए अन्य सुविधाएँ नहीं दे पाते। उनकी कोशिश है कि वे मदद फाउंडेशन का विस्तार करें और इसे एक व्यापक रूप दें, ताकि ऐसे निराश्रित परिवारों के बच्चों को पढ़कर इस योग्य बनाया जा सके कि वे स्वयं अपना घर चला सकें, और उन्हें भीख मांगने की जरूरत न पड़े।
विजन: एक भूख-मुक्त भारत
मंगला और अमृता का सपना अब और बड़ा हो चुका है। वे चाहते हैं कि रविवार की रसोई हर ब्लॉक, तहसील और जिले में अपनी जड़ें जमाए। उनका विजन है कि हर इंसान अपनी कमाई का 10% हिस्सा जरूरतमंदों के लिए दे, ताकि कोई भी भूखा न सोए। यह करुणा का कारवाँ एकजुटता और मानवता का संदेश फैलाता है।
आह्वान: आप भी बनें बदलाव का हिस्सा
मंगला प्रसाद तिवारी की यह यात्रा एक साधारण मीडियाकर्मी की असाधारण कहानी है। अपनी सैलरी के 10% हिस्से से शुरू हुआ उनका सफर आज लाखों लोगों के लिए प्रेरणा बन चुका है। वे कहते हैं, "अगर आपके पास देने के लिए एक रोटी और एक नेक दिल है, तो आप भी किसी की जिंदगी बदल सकते हैं।"
